बीमारी क्या है? क्या टीके से बीमारियों को खत्म किया जा सकता है?


WHO expert: Finding and distributing COVID-19 vaccine in 18 months ...


इंटरनेट से ली गई छवि)

कल मुझे एक वेबिनार में रोग उन्मूलन (disease eradication) पर बोलने के लिए कहा गया था। मैंने कमोबेश यही कहा।

पहले हमें बीमारी का मतलब समझना चाहिए I टीकाकरण रोग के कीटाणु और वायरस  के सिद्धांत पर आधारित है। मतलब तरह तरह के कीटाणु/बैक्टीरिया या विषाणु /वायरस के कारण रोग होते हैं। हालाँकि पाश्चर(Pasteur) एक विवादास्पद चरित्र थे और उनके सिद्धांतों का स्वागत नहीं किया गया था क्योंकि उन्होंने हमेशा दुसरो के विचारो की नक़ल करके अपने विचार व्यक्त किये थे I  उनके इन्ही सिद्धांतों  का विरोध और किसीने नहीं बल्कि उनके खुद के बॉस  डॉ। एंटोअन बिचेंप(Antoine Bechamp), एमडी ने ही किया था , वे एक  प्रयोगशाला के मालिक थे  जिसमे की खुद पैस्टर(Pasteur) एक सहायक /असिस्टेंट  के रूप में काम करते थे - और पैस्टर(Pasteur) ने अपने बॉस के ही काम की सबसे ज्यादा नक़ल की थी Iबिचेंप(Bechamp)ने बीमारी को अपने तरीके के सिद्धांत से सामने रखा था जहां उन्होंने कहा कि एक रोगग्रस्त शरीर ही तरह तरह के  कीटाणुओं को आकर्षित करता है , जो शरीर की  मृत कोशिकाओं/ की गन्दगी को नष्ट करने के लिए आते हैं। मतलब सीधा है की बीमारी की वजह से कीटाणु शरीर में आते है , कि कीटाणु की वजह से शरीर बीमार पड़ता है कीटाणु तो बल्कि इलाज का एक हिस्सा हैं। एक गन्दगी से भरा ढेर मक्खियों को आकर्षित करता है। मक्खियों कचरे के ढेर का कारण नहीं बनती हैं।

माइक्रोबायोम पर अध्ययन भी पैस्टर के बजाय बिचेंप का ही समर्थन करता है। हमारा शरीर कीटाणुओं और विषाणुओं से भरा हुआ हैं, जो की हमारे शरीर के महत्वपूर्ण कार्यों में साथ देते हैं। वे शरीर के बाहर भी मौजूद अनेक प्रकार के कीटाणुओं और वायरस के साथ मिलकर भी  शरीर को और फायदा ही करते हैं। पैस्टर की गलत व्याख्या की वजह से आज हमारी इन्ही फायदेमंद कीटाणु और वायरस से एक जुंग छिड़  चुकी है , और हमारी ज्यादातर आबादी अपरिवर्तनीय रूप से बीमार हो चुकी है I

प्राकृतिक चिकित्सा जैसे की नेचुरोपैथी , बीमारी के विषाक्तता सिद्धांत का समर्थन करती है; हमारे शरीर में ज़हर/ गन्दगी  का इकठा होना ही बीमारी का कारण बनता है। ये गन्दगी आंतरिक और बाहरी कारणों से हो सकती है। शरीर के अंदर चल रहे कार्य के कारण हमारे शरीर में लगातार कूड़ा /गन्दगी  उत्पन्न होती हैं, और जब ये ठीक तरीके से निष्कासित नहीं होती या बहार नहीं निकलती , तो ये शरीर के अंदर ही इकठी होती रहती है I  यदि हम गलत प्रकार का भोजन या पानी लेते हैं तो हम बाहरी विषाक्त पदार्थों/ज़हरीले पदार्थों को आमंत्रित करते हैं।

हमारा शरीर जानता है कि खुद को कैसे ठीक करना है। चिकित्सा शक्ति को शरीर की जीवन शक्ति या महत्वपूर्ण शक्ति द्वारा सहायता प्राप्त है। जब टॉक्सिंस/गन्दगी जमा होती हैं तो शरीर डिटॉक्सिफिकेशन मोड/ उस गन्दगी को बहार निकलने के काम में लग जाता है। बुखार, सूजन, जुकाम, खांसी, दस्त, पेचिश और त्वचा के फटने जैसे लक्षणों के माध्यम से शरीर विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है। कीटाणु और जीवाणु इस प्रक्रिया में उसकी सहायता करते हैं। वे शरीर के रोगग्रस्त होने के बाद दिखाई देते हैं और इस तरह वो  इलाज का ही एक हिस्सा हैं।

यदि हम बीमारी को नहीं समझते हैं और लाभकारी कीटाणुओं और वायरस पर हमला करते हैं तो शरीर से विषैले पदार्थ निकालने की आवश्यक प्रक्रिया रुक जाती है। हमें लगता है कि हमने एक बीमारी का सामना कर लिया है। पर वास्तव में शरीर के अंदर ज़हरीला कचरा इकठा होता चला जा रहा है। यह हमें शारीरिक और मानसिक स्तर पर प्रभावित करता है, जिससे हमारी जीवन शक्ति/vitality को  नुकसान होता है - जिसका की सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, शरीर को विषाक्तता से दूर रखना। शरीर भ्रमित हो जाता है और खुद को दर्दनाक पुरानी बीमारियों के रूप में समायोजित करता है जो तब चिकित्सा उद्योग के लिए चारा बन जाता है और उन्हें लाभ देता है।

कीटाणु और वायरस सिद्धांत ने हमारे भीतर के डॉक्टर पर हमला किया है। एक आग की कल्पना करे आग के कारण घटनास्थल पर आग बुझाने वाले कर्मी पहुंचते है। पाश्चर देखता है कि जहां आग लगी है वहां कर्मी हैं। उनके तर्क के अनुसार आग बुझाने वाले कर्मी ही आग का कारण हैं। तो उनका समाधान है; आग बुझाने के लिए दमकल कर्मियों को मार डालो।

शरीर हमेशा बीमारी को खत्म करने की कोशिश करता है। अगर कोई कांटा आपके पैरों में फंस जाए तो क्या होगा? आपको दर्द महसूस होता है, जगह सूज जाती है, पीप बनती है , और फिर काँटा निकल जाता है। अब क्या आप एक बीमारी के रूप में सूजन और पुस के गठन का इलाज करते हैं और इन लक्षणों से छुटकारा पाने के लिए क्या कोई दवाई लेते हैं? यदि आप ऐसा करते हैं और लक्षण समाप्त हो जाते हैं, पर काँटा शरीर में ही रहता है तो शरीर के भीतर ये काँटा बहुत गहरे स्तर पर समस्या पैदा करता है। तीव्र रोग इसी के समान है; लक्षण जो शरीर विषाक्तता को खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं।

जब हम जहर पीते हैं तो क्या होता है? हमे बुखार आता है और दस्त होते है I यदि आपको अस्पताल ले जाया जाता है तो आपके पेट की सफाई की जाई जाती है कोई भी दस्त को रोकने के बारे में नहीं सोचेगा।

वरिष्ठ प्राकृतिक चिकित्सक के अनुसार, जिनसे की मैंने वार्तालाप किया है , आज की विषाक्त दुनिया में, शरीर को वर्ष में कम से कम सात बार तीव्र रोग उत्पन्न करना चाहिए। अन्यथा यह स्वस्थ नहीं रह सकता। प्राकृतिक चिकित्सक और आयुर्वेदिक चिकित्सक वर्ष में एक प्राकृतिक चिकित्सा या आयुर्वेदिक विषहरण की सलाह देते हैं। हमें पता होना चाहिए कि हमें अपने शरीर की देखभाल कैसे करनी है। हमारे पूर्वज नियमित रूप से उपवास करते थे और आराम और तरल पदार्थों के साथ तीव्र रोग का सामना करते थे। वे चिंतित होते थे अगर उन्हें कुछ तीव्र रोगो का सामना नहीं करने को मिले

इसके बाद अब स्वास्थ्य पर आते है। मानव शरीर एक मशीन नहीं है जिसे जीवित रहने के लिए रसायनों की आवश्यकता होती है। यह एक गतिशील जैविक इकाई है जो एक सूक्ष्म अदृश्य ब्लूप्रिंट(खाका) द्वारा समर्थित है जो इसे बुद्धिमत्ता प्रदान करती है और अखंडता बनाए रखती है। यह हमेशा स्वस्थ और लम्बा जीवन चाहता है। इसके सामने आने वाली चुनौतियां इसे मजबूत करती हैं और बुद्धिमत्ता को जोड़ती हैं।

स्वस्थ रहने के लिए शरीर को कुछ चीज़ों की आवश्यकता होती है। वे हैं पोषण, व्यायाम, ऑक्सीजन/वायु का सेवन, सिरकाडियन रदम/जैविक प्रक्रिया का पालन करना, प्रकृति का संपर्क, और एक स्वस्थ जीवन शैली; जिसमें नैतिक और नैतिक सिद्धांतों का पालन शामिल है। क्षारीय भोजन के सेवन से शरीर में क्षारीय वातावरण को बनाए रखने में मदद मिलती है। कीटाणु और वायरस सिद्धांत हमें बताता है कि हम जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं और जब हम बीमार पड़ते हैं तो हम फिर से स्वस्थ होने के लिए कुछ कीटाणुओं और विषाणुओं को मार सकते हैं।

मुंबई में एक डॉक्टर हैं जिन्होंने एक जंगल में एक फार्म हाउस बनाया है। वह मरीजों को फार्महाउस में आमंत्रित करते है। मरीज जंगल में घूमते है और पौष्टिक भोजन लेते हैं। यह खुद ही उन्हें ठीक कर देता है। जंगल में स्नान या घूमना जापान में एक स्वास्थ्य रिवाज है। इसके लाभ दर्ज करने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन भी हुआ हैं। यह बीमारियों से उबरने में मदद करता है और तनाव और चिंता से भी। पहले जब कोई बिजली नहीं थी तब लोग सूर्य के प्राकृतिक चक्र के अनुसार रहते थे और स्वस्थ रहते थे।

चलिए अब हम बचपन की आम बीमारियों की ओर आते हैं। वे खसरा, कण्ठमाला, रूबेला, जुकाम और काली खांसी जैसे रोग हैं। उनमें बुखार, सूजन, पीप बनना और फोड़े होना शामिल है। ये ऐसे लक्षण हैं जो शरीर खुद ही साफ़ करने के लिए बहार निकाल रहा हैं। शिशुओं और बच्चों में एक निष्क्रिय प्रतिरक्षा प्रणाली होती है। इस अवधि में यह माता-पिता से विरासत में प्राप्त विषाक्त को फेंकना चाहता है। बच्चों को असुविधा से बचाने के लिए हमें खुद को डिटॉक्स करना चाहिए और एक सुरक्षित और विष रहित वातावरण को सुनिश्चित करना चाहिए।

आज वैज्ञानिक अध्ययन हैं जो सामान्य बचपन की बीमारियों के लाभकारी प्रकृति को साबित करते हैं। यह पाया जाता है कि जो बच्चे इन बीमारियों से गुजरते हैं, उनका जीवन में बाद में होने वाली स्थायी बीमारियों और कैंसर से बचाव होता है। आज खसरा, कण्ठमाला, चिकन पॉक्स और पोलियो वायरस का उपयोग कैंसर के इलाज के लिए किया जा रहा है। यह देखा जा रहा है कि जब कैंसर के मरीज को तेज बुखार आता है और चकत्ते हो जाते हैं तो कैंसर के ट्यूमर गायब हो जाते हैं। कीटाणु और वायरस की लाभकारी प्रकृति स्थापित की गई है।

डिप्थीरिया और टेटनस जैसे रोग बच्चों में एक समस्या बन गए और चेचक के टीके और उसको दिए जाने के तरीके की वजह से  रोग और बढ़ गए। चेचक के टीके से सिफलिस फैलता है। होम्योपैथी के अनुसार डिप्थीरिया एक सिफिलिटिक रोग है जो ऊतक/टिश्यू  को नष्ट करता है।  इसके कारण होने वाली असंख्य बीमारियों को देखते हुए असंख्य चेचक के टीके को रोकने के बजाए, नए टीके बनाये जाने लगे। विषाक्त पदार्थों को कम करने के बजाय अधिक विषाक्त पदार्थों को शरीर में टीकों के माध्यम से डाला गया I

अब हम उन्मूलन भाग में आते हैं। यह दावा किया जाता है कि टीकों के कारण चेचक का नाश हुआ था। चेचक के टीके को इस धारणा पर तैयार किया गया था कि चेचक चेचक को रोक सकता है। इसका विरोध किया गया क्योंकि सिद्धांत विफल हो गया था। गाय पॉक्स से संक्रमित नौकरानियों ने कोई सुरक्षा विकसित नहीं की और चेचक होने के कारण उनकी तबियत बिगड़ गई। घ्राण, टीकाकरण और वैरिओलेशन जैसी समान विधियों ने बीमारी को बदतर बना दिया था, जिससे महामारी बदतर हो गई थी, और अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव और मौतें हुईं। उन्हें बंद करना पड़ा।

चेचक के टीके रोगग्रस्त लोगों की लाशों में से पूस निकालकर , गायों में टीके के माध्यम से डाला , फिर रोगग्रस्त गायों से पूस लेकर  और उन्हें घोड़ों में इंजेक्ट किया गया,  फिर उन बीमार घोड़ों के पिछले पैरों से बहाव को छीलते हुए जिसे की चिकनाई कहते है , और फिर उन्हें फिर से बछड़ों के माध्यम से बनाया गया परिणामी जो पीप/पूस थी उसे वैक्सीन का नाम दिया गया I भारत और अफ्रीका जैसे देशों में बकरियों, कुत्तों, खरगोशों और बंदरों का भी उपयोग हुआ। इस प्रक्रिया में उपयोग किए जाने वाले जानवर बुरी तरह से पीड़ित हुए और उनकी दर्दनाक मौतें हुईं।

इस खतरनाक मिश्रण  ने सिफिलिटिक पॉक्स के भयानक रूप को फैलाया, सिफलिस का प्रसार किया, जिससे कैंसर, तपेदिक, कुष्ठ रोग, सिज़ोफ्रेनिया, पागलपन, एक्जिमा, सोरायसिस, नेक्रोसिस, सेप्सिस और गंभीर न्यूरोलॉजिकल विकारों के कई प्रकार के रोग पैदा हुए। इसने लाखों लोगों को मार डाला और महामारी को बदतर बना दिया। यह एक बड़ी विफलता थी और लोगों ने टीकों को दूर रखने के लिए बंदूकों के साथ सड़कों पर पहरा दिया।

डब्ल्यूएचओ(WHO) द्वारा इस विफलता के बावजूद भी यही टीके को फिर से लगाया गया था; लेकिन एक रणनीति के साथ। दुनिया भर में चेचक के 350,000 मामलों को व्यापक टीकाकरण का औचित्य सिद्ध करने के लिए ,५००,००० तक फुलाया गया था। वैक्सीन पेश किए जाने के बाद चेचक के मामलों को चिकन पॉक्स, खसरा, एक्जिमा और दाने में बदल दिया गया। चिकित्सा ग्रंथों ने यह निर्देश दिया कि छोटे चेचक के टीके से टीका लगाए गए लोग छोटे चेचक के साथ संक्रमित नहीं हो सकते है। इसलिए डॉक्टरों ने उन्हें अन्य नामों से दर्ज करना शुरू कर दिया। डब्ल्यूएचओ ने देखा कि कई क्षेत्र वैक्सीन को खारिज कर रहे थे और स्वच्छता, पोषण और रोगियों के अलगाव जैसे उपायों को अपना रहे थे। परिणाम था की चेचक की संख्या और मौतों की संख्या में अचानक गिरावट होने लगी फिर उन्होंने भी इन उपायों को अपनाया।

एक समय अचानक चेचक गायब हो गया। यह टीकाकरण की स्थिति की परवाह किए बिना सभी स्थानों पर गायब हो गया। वैक्सीन ने इसका श्रेय ले लिया। लेकिन बाद में जब टीके की जांच की गई तो टीके को विफल पाया गया। इसमें तो चेचक के वायरस थे और ही गाय के पॉक्स या हॉर्स पॉक्स के वायरस। यह घोषित किया गया था कि इसमें "वैक्सीनिया वायरस" (एक काल्पनिक वायरस) था जो चेचक को मिटा देता था। क्या मजाक है!

"छोटे चेचक उन्मूलन मॉडल" को विकासशील देशों में मौखिक पोलियो वैक्सीन पेश करने के लिए अपनाया गया था। दुनिया भर में 32,417 मामलों को 350,000 और बाद में 400,000 तक भड़काया गया। वैक्सीन के आने के बाद वायरल पोलियो के मामले  (जो कि शिशु पक्षाघात पोलियो के लगभग 10% मामले थे) को द्विभाजित कर दिया गया पोलियो घोषित करने के मानदंड को बदल दिया गया था जिससे स्वचालित रूप से मामलों की संख्या कम हो गई थी। तब एक नई बीमारी को नॉन पोलियो एक्यूट फ्लैसिड पैरालिसिस(NPAFP) के रूप में परिभाषित किया गया था, जिसके अंदर इन सभी मामलों को दर्ज किया गया था यह कभी घोषित ही नहीं हुआ कि टीकों के कारण पक्षाघात के कितने मामले थे।

गैर पोलियो तीव्र फ्लेसीड पक्षाघात वायरल पोलियो से चिकित्सकीय रूप से अविशेषणीये है। जब वैक्सीन को पेश किया गया तब पोलियो के लगभग 1000 मामले  (सभी तरह के ) सालाना दर्ज किए जा रहे थे। जब देश को आखिर में पोलियो मुक्त घोषित किया गया था, तब उस वक़्त सालाना 60,999 मामले नॉन पोलियो एक्यूट फ्लैसीड पैरालिसिस के दर्ज थे!
तो यह है कि कैसे टीकों ने बिमारी का "उन्मूलन" किया है। हमें बीमारी को मिटाने के लिए टीकों की आवश्यकता नहीं है। हमें सामान्य ज्ञान की आवश्यकता है। हमें दवा की ऐसी प्रणालियों की आवश्यकता है जो बीमारी को समझें और स्वास्थ्य में सुधार लाने  में मदद करें। डॉक्टरों का कर्तव्य है कि वे स्वस्थ लोगों को अधिकतम स्वस्थ बनाये, अस्वस्थ को वापस स्वस्थ बनाये और बीमारों का इलाज करें। पर इसके बजाय हमने ऐसी प्रणाली बना ली है  जिसमे चिकित्सक स्वस्थ आबादी में सबसे खतरनाक विषाक्त पदार्थों को इंजेक्ट करते हैं, शरीर के कार्यों में दखल देते है , और फिर परिणामी बीमारियों की देख भाल  करते हैं। यदि हम इस प्रणाली को वैज्ञानिक कहते हैं, तो हम तो बीमारी को समझते हैं और ही स्वास्थ्य को।

पाद लेख:


टीके आज एनआईएच डेटाबेस(NIH Database) में 1339 प्रकाशित वैज्ञानिक अध्ययनों  में मृत्यु सहित 292 बीमारियों और विकारों से जुड़े हैं। वैक्सीन के पैकेज में टीकाकरण के बाद करीबन 217 बीमारियां जिसमे की मृत्यु की संख्या भी है, दर्ज है I इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिसिन ने उनमें से 156 का अध्ययन किया, 150 में वैक्सीन सम्बंधित की पुष्टि की और बाकी 6  पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा। टीकाकरण के प्रतिकूल प्रभाव शायद ही कभी दर्ज किए जाते हैं। पिलग्रिम अध्ययन नामक हार्वर्ड के अध्ययन में 1% से भी कम प्रतिकूल प्रभाव दर्ज किये गए हैं। टीकाकरण के प्रतिकूल प्रभाव दुनिया भर के बच्चों में पाए जा सकते हैं और 54% बच्चे स्थायी  बीमारियों से पीड़ित हैं जो कि पूर्व-वैक्सीन युग में नहीं पाई गई थीं। विश्व स्तर पर कई  डॉक्टरों और वैज्ञानिकों द्वारा टीकाकरण पर प्रश्न उठाये गए हैं  जिन्होंने भी विषयों पर उनके प्रभावों का अध्ययन किया है। वे उद्योग द्वारा वशीभूत और सेंसर किए जाने के बावजूद इसे करते हैं।

बच्चों में रोग के आंकड़े:
हमारे बच्चे आज बेहाल अवस्था में हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, आज 54% बच्चे स्थायी बीमारियों से पीड़ित हैं। 10 में से 1 बच्चे को अस्थमा है। 13 में से 1 खाद्य एलर्जी से पीड़ित है। 6 में से 1 बच्चे विकास संबंधी विकारों से पीड़ित हैं। 8 में से 1 गंभीर तंत्रिका संबंधी विकारों से ग्रस्त है। अप्रैल 2019 में जारी सीडीसी की नवीनतम रिपोर्ट से पता चलता है कि 59 बच्चों में से 1 को ऑटिज्म पीड़ित है। पिछले 8 से 10 वर्षों में: किशोर मधुमेह 23% तक बढ़ गया है , कैंसर 29% तक , एडीएचडी 43% तक , खाद्य एलर्जी 50% गुना बढ़ गयी है , अस्थमा की दर लगभग 50% बढ़ी, आटिज्म 150% तक बढ़ गया है आज स्वस्थ बचपन कहाँ है जो टीके  के द्वारा वादा किया है? वे सभी स्वतंत्र अध्ययन, जिन्होंने अब तक टीकाकृत और बिना टीकाकरण के स्वास्थ्य की तुलना की है, अध्ययन किए गए सभी मामलों में बिना टीकाकरण वाले  समूहों को स्वस्थ पाया है।

स्रोत:

https://www.greenmedinfo.com/blog/anti-vaccination-pro-science-pro-health-anti-industry

जगन्नाथ चटर्जी।